शनिवार, 9 जून 2007

" तलाश "

वर्षों से मन में आस थी
एक दोस्त की तलाश थी,
थक गयी थी ज़िन्दगी
यूं ढूंढते ही ढूंढते,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

सैकड़ों सरिता मिलीं
कुछ रेत कि कुछ नीर की,
पायी ना कोई धार निर्मल
सो ज़िन्दगी अधीर थी,
क्या कहूँ कैसे कहूँ
ये किस तरह की प्यास थी,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

चलता रह फिर ये सफ़र
पड़ाव भी जाते रहे,
झूठी तसल्ली देकर खुद को
खुद ही समझाते रहे,
जानती थी ज़िन्दगी
ये मात्र एक परिहास थी,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

पर एक दिन यूं ही अचानक !
मेहरबाँ वो रब हुआ,
मुझको नही मालुम अरे !
कैसे हुआ ये कब हुआ !
उम्मीद जिसकी थी नही
लो वो तो मेरे पास थी,
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।

सुमन सा कोमल सु-मन मैं
देखता ही रह गया,
स्नेह की आँधी चली और
दूर तक फिर बह गया,
सोचा अकेला हो गया
फिर से ज़माने में मगर,
आखें खुलीं तो पाया मैंने
वह तो मेरे पास थी
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।

कोई टिप्पणी नहीं: