गुरुवार, 14 जून 2007

जिन्दगी

सभी शिकवे जमाने के दफ़न कर लेना सीने में,
जिंदगी का मज़ा क्या है अरे मर - मर के जीने में
सभी शिकवे ज़माने के दफ़न कर लेना सीने में

जिन्दगी एक तोहफा है खुदा कि लाख नियामत है,
जरा पूंछो पत्थरों से जिन्हें ये ही शिक़ायत है
मुझे क्यूँ रब ने ना दी जिन्दगी क्या थी खता मेरी,
ठोकरें क्यूँ लिखीं तकदीर में ये तो बता मेरी
ना सरदी है ना गरमी है ना पतझड़ है ना बरसातें,
ना बूंदों कि ही रिमझिम का मज़ा सावन महीने में
सभी शिकवे ..................
ज़िन्दगी है कलश अमृत इसे भरपूर पिए जा,
हवा का एक झोंका बन मज़ा इसका तू लिए जा
जिन्दगी रंग से भर ले तितलियों के संग उड़कर,
कदम आगे बढाता चल कभी मत देखना मुड़कर
कभी मत कैद होना तू किसी कि चालबाजी में,
किसी के हार कंगन में किसी मोती नगीने में

सभी शिकवे जमाने के दफ़न कर लेना सीने में,
जिंदगी का मज़ा क्या है अरे मर - मर के जीने में

सोमवार, 11 जून 2007

चिड़िया बोली ओ इन्सान !

चिड़िया बोली ओ इन्सान !
मैंने तेरा क्या बिगाड़ा,
जो तूने मेरा घर उजाडा
क्या मुझको गरमी नही लगती ?
या मुझको लगता नही जाड़ा ?
जब-जब तुमको छाँव चाहिऐ
मेरे घर तले आते हो
और लगे जब सर्दी तो तुम
घर उजाड़ने आ जाते हो
जब-जब तुम मेरे घर आये
मैंने तुमको गीत सुनाये
जब-जब घर मैं गयी तुम्हारे
ढेले पत्थर मुझको मारे
मैं तेरे घर का कंगूरा
बता आज तक जो में लाई ?
फिर भी तूने बिना वजह आ
मेरे घर कि नीव हिलायी
एक बात सुन कान खोलकर
तेरा जो प्यारा जीवन है
जिन सांसों पर चलता है
ये मेरा घर का उत्सर्जन है
तेरे घर कि चौखट से हम
क्या ? तिनका आज तलक लाए
फिर क्यों मेरे घर को ऐसे
चोपट करने तुम आये
कहने को इन्सान कहाते
पर प्रेम दया का नाम नही है
बे-घर करना बेजुबान को
इन्सानियत का काम यही है ?
इसी को दरिया दिली बोलते ?
इसी को क्या कहते ईमान ?
चिड़िया बोली ओ इन्सान …

फैशन बनाम पहाड़गंज

एक गाँव के बूढ़े बाबा पूरे सत्तर साल नही थे ,
बदन में तो थी चुस्ती फुर्ती लेकिन सर पर बाल नही थे ।
एक रोज शहर दिल्ली आये करने को शैर बाजारों की ,
चाँदनी चौक में जा निकले जहाँ भीड़ थी मोटर कारों की ।
फैशन से सजी एक लडकी बाबा के पास में आयी थी,
था चुस्त पाजामा बालों कि पर्वत सी शक्ल बनायीं थी ।
आकर बोली वो बाबा से बाबाजी मुझको बतलाना,
मैं भूल गयी यहाँ आ निकली था पहाड़ गंज मुझको जाना ।
सुनकर के बातें लडकी कि बाबा थोडा सा मुस्काया,
है पहाड़ गंज जहाँ खडी हुई बाबा ने उसको बतलाया ।
बोली लडकी बाबा ये तो शीश गंज गुरुद्वारा है,
बाज़ार चाँदनी चौक का है, यहाँ आता नज़र फुआरा है ।
बोला बाबा थोडा हंसकर तुम कहीँ नही खाना चक्कर,
है पहाड़ बाना तेरे सर पर और गंज देख मेरे सर पर ।

" राघव गीतांजलि से "

शनिवार, 9 जून 2007

" मेरी अभिलाषा "

मात्र भाषा ही नही है, वरन मातृ भाषा मेरी,
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी ।
माँ सरस्वती की दुहिता और संस्कृत की सुता,
सरित सा प्रभाव लिए, लिए सागर की गम्भीरता ।
गूढ़ भी आसान भी और हिंद की पहिचान भी,
जन - जन कि जुबान और राष्ट्र का सम्मान भी ।
सिंधु कि ये सभ्यता, भविष्य कि आशा मेरी,
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी।
मात्र भाषा ही नही .....................
मनन मन मंथन करूं तो रत्न कोटिक गोद में ,
कोतुहल भय विषाद में प्रेम में प्रमोद में ।
विरह में वात्सल्य में शृंगार में और क्रोध में ,
करुण में परिहास में अनन्त जिज्ञासा मेरी ।
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी ,
मात्र भाषा ही नही .....................

" तलाश "

वर्षों से मन में आस थी
एक दोस्त की तलाश थी,
थक गयी थी ज़िन्दगी
यूं ढूंढते ही ढूंढते,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

सैकड़ों सरिता मिलीं
कुछ रेत कि कुछ नीर की,
पायी ना कोई धार निर्मल
सो ज़िन्दगी अधीर थी,
क्या कहूँ कैसे कहूँ
ये किस तरह की प्यास थी,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

चलता रह फिर ये सफ़र
पड़ाव भी जाते रहे,
झूठी तसल्ली देकर खुद को
खुद ही समझाते रहे,
जानती थी ज़िन्दगी
ये मात्र एक परिहास थी,
सो ज़िन्दगी की राह में
खुद ज़िन्दगी उदास थी ।

पर एक दिन यूं ही अचानक !
मेहरबाँ वो रब हुआ,
मुझको नही मालुम अरे !
कैसे हुआ ये कब हुआ !
उम्मीद जिसकी थी नही
लो वो तो मेरे पास थी,
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।

सुमन सा कोमल सु-मन मैं
देखता ही रह गया,
स्नेह की आँधी चली और
दूर तक फिर बह गया,
सोचा अकेला हो गया
फिर से ज़माने में मगर,
आखें खुलीं तो पाया मैंने
वह तो मेरे पास थी
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।
अब ज़िन्दगी खुद ज़िन्दगी के
जीने का एहसास थी ।