शनिवार, 9 जून 2007

" मेरी अभिलाषा "

मात्र भाषा ही नही है, वरन मातृ भाषा मेरी,
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी ।
माँ सरस्वती की दुहिता और संस्कृत की सुता,
सरित सा प्रभाव लिए, लिए सागर की गम्भीरता ।
गूढ़ भी आसान भी और हिंद की पहिचान भी,
जन - जन कि जुबान और राष्ट्र का सम्मान भी ।
सिंधु कि ये सभ्यता, भविष्य कि आशा मेरी,
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी।
मात्र भाषा ही नही .....................
मनन मन मंथन करूं तो रत्न कोटिक गोद में ,
कोतुहल भय विषाद में प्रेम में प्रमोद में ।
विरह में वात्सल्य में शृंगार में और क्रोध में ,
करुण में परिहास में अनन्त जिज्ञासा मेरी ।
पल्लवन इसका करूं मैं ये ही अभिलाषा मेरी ,
मात्र भाषा ही नही .....................

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