चिड़िया बोली ओ इन्सान !
मैंने तेरा क्या बिगाड़ा,
जो तूने मेरा घर उजाडा
क्या मुझको गरमी नही लगती ?
या मुझको लगता नही जाड़ा ?
जब-जब तुमको छाँव चाहिऐ
मेरे घर तले आते हो
और लगे जब सर्दी तो तुम
घर उजाड़ने आ जाते हो
जब-जब तुम मेरे घर आये
मैंने तुमको गीत सुनाये
जब-जब घर मैं गयी तुम्हारे
ढेले पत्थर मुझको मारे
मैं तेरे घर का कंगूरा
बता आज तक जो में लाई ?
फिर भी तूने बिना वजह आ
मेरे घर कि नीव हिलायी
एक बात सुन कान खोलकर
तेरा जो प्यारा जीवन है
जिन सांसों पर चलता है
ये मेरा घर का उत्सर्जन है
तेरे घर कि चौखट से हम
क्या ? तिनका आज तलक लाए
फिर क्यों मेरे घर को ऐसे
चोपट करने तुम आये
कहने को इन्सान कहाते
पर प्रेम दया का नाम नही है
बे-घर करना बेजुबान को
इन्सानियत का काम यही है ?
इसी को दरिया दिली बोलते ?
इसी को क्या कहते ईमान ?
चिड़िया बोली ओ इन्सान …
सोमवार, 11 जून 2007
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें