गुरुवार, 17 मई 2007

चेतना

वर्स हो या प्रोज़ हो लिखना हमारा रोज़ हो
लेखनी को हर समय अविराम चलना चाहिए!
तलवार का हो वार या एटम का कोई वार हो
हर वार का उत्तर उन्हें हर बार मिलना चाहिए।
हाथों में तेरा हाथ हो हर क़दम तेरा साथ हो
इंसानियत को सिर्फ तेरा प्यार मिलना चाहिए।
वसुधैव एक कुटुम्बकम इस भाव को पूजेंगे हम
संसार रूपी वृक्ष को फलदार मिलना चाहिए।
ये हवा जो निर्बंध है इसमें बहुत दुर्गंध है
चलो "राघव" इस हवा का रुख़ बदलना चाहिए।

सोमवार, 14 मई 2007

वेदना

झर झर झरने से झरे नयन
लो कर ना सके अब दर्द वहन
ले खड़ा हुआ कई प्रश्न चिन्ह
निरुत्तर सा मेरा जहन

क्या मानवता का अर्थ यही
है ग़लत मगर क्यों वही सही
ग़र वाही सही तो, हो ना सका क्यूँ
सही भी मुझसे आज सहन
("राघव गीतांजलि")

शनिवार, 12 मई 2007

लाभ प्रद दोहे

मिश्री बच के चूर्ण से लेओ जलेबी खाय ।
"राघव" निश्चय जानिए पागलपन मिट जाये ॥

हर्र बहेड़ा आंवला चोथी नीम गिलोय !
जो इनका सेवन करें पेट रोग ना होय ॥

जो कोई नियमित रूप से तेल मले नित नहाय ।
"राघव" फिर वो नर कभी नही दवाई खाए ॥

ठंडे जल से हाथ पग सोते पहले धोय ।
"राघव" करो यकीन तुम स्वप्न दोष ना होय ॥
"राघव गीतांजलि से"

कण कण ले चींटी चढ़े गिरती सौ सौ बार ।
रह रह कदम संभालती, हो जाती है पार ॥

नशा

हाल ही में, श्रीमान जी MBBS कर स्वदेश आते हैं
लोगों को इकट्ठा कर
नशा मुक्त जीवन की युक्ति बताते हैं
बीड़ा उठाते हैं
आइये अपने देश को
नशा मुक्त बनाते हैं
इसी सिलसिले में
एक मयखाने पहुंच जाते हैं
टाई को संभालकर जोर से चिल्लाते हैं
मेरे युवा भाइयो गौर से सुनिये
नशे को नही खुशहाली को चुनिए
ये शराब, ये नशा करता है दुर्दशा
कैसे लोग मरते हैं इसको पीकर
सिद्ध करता हूँ आपके सामने
फिर निकालते हैं अपने बैग से २ बीकर
एक बीकर में पानी दूसरे में शराब लेते हैं
और फिर दोनो में कुछ-कुछ केचुए डाल देते हैं
पानी में केचुए मस्ती से छलाँग लगाते हैं
मगर शराब में केचुए बिलबिलाते हैं
कट जाते हैं फट जाते हैं
श्री मान डाक्टर साहब
निशब्द महफ़िल में मुस्कुराते हुए पुछते हैं
बताइए दोस्तो ?
इससे हम किस निष्कर्ष पर आते हैं
सबके मुहं सिले हैं
महफ़िल में सन्नाटा है
तभी कुछ शब्द मौन भंग करते हुए
टूटे - फूटे से
लड़खड़ाते हुये पीछे से आते हैं
डाक्टर साहब!!
इससे पता चलता है कि
शराब पीने से
पेट के सारे कीड़े मर जाते हैं
मेरे प्यारे दोस्तो
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जो सुनना चाहते हैं वही सुनते हैं
जो समझना चाहते हैं वही समझते हैं
और फिर बाद में अपनी नासमझी पर नही
अपनी समझदारी पर रोते हैं

आगमन "किरण"

उजली निखरी सी एक किरण सी भये भोर उतनी आंगन में
खुशियों की लहरों ने गया वत्सलता का गीत चमन में
मिश्री सी घुल गयी कानो में। बही सुगंधि मस्त पवन में
डूबा गहरे प्रेम सरोवर खोया एसे अपनेपन में
पल-पल छिन-छिन भाव आ राहे इस अलबेले पागल मॅन में
दीख रही थी वही परी अब हर बच्चे में हर बचपन में
जी चाहता है पंख लगाकर उड़ जाऊं में दूर गगन में
उजली निखरी सी एक किरण सी..................
खुशियों की लहरों ने गया ......................

गुरुवार, 10 मई 2007

बचपन

बड़ा सलोना नाजुक प्यारा सुन्दर सा मन ।
भोला भाला नटखट सा होता है बचपन ॥
एक शाम मैं छत पर बैठा था यूं अकेला ।
सहसा बचपन कि यादों ने आकर घेरा ॥
बोलीं जब से तरुण हुये हो भूल गए हो ।
मस्त जवानी की बाँहों में झूल रहे हो ॥
याद करो वो वक़्त गुजरा था जो संग संग ।
भोला भाला ..................
फिर एक नन्हीं याद मुझे यूं लगी बताने ।
लिया दाखिला और लगे हम स्कूल जाने ॥
रास्ते के उन बाग़ बगीचों में घुस जाना ।
छुप छुप कर के चोरी से फल फूल चुराना ॥
भर लेना बस्ते में फिर खाना रस्ते में ।
इसी तरह यूं उछल कूद में स्कूल जाना ॥
दौडे घर को ज्यूँ सुनी घंटे की टन टन ।
भोला भाला ..................
फिर एक नटखट याद ने झकझोरा मुझको ।
बोली बेटा भूल गया, या याद है तुझको ॥
टीका टीक दोपहरी छत पर पतंग उडाना ।
कट गयी कट गयी कहकर कितना शोर मचाना ॥
एक दिन ग़ुस्सा आया देखो माँ को हमारी ।
छप्पर में जो रखीं थी पतंग फाड़ दीं सारी ॥
फिर तो हमने जा रसोई में फेंके बरतन ।
भोला भाला .................
हुए बडे तो साइकिल ने मन को लुभाया ।
और साइकिल सीखने का मन कर आया ॥
छुपके से पापा कि साइकिल बहार लाए ।
आज मिला है मौका मन ही मन हर्षाये ॥
जैसे ही चढ़ साइकिल हमने पैडल मारे ।
साइकिल पडी थी बीच सड़क हम पडे किनारे ॥
कोई देख ना ले फुर्ती से उठ गए फ़ौरन ।
पर घुटने कुहनी हाथ हथेली छिल गए सारे ॥
हफ़्तों तक दुखती रही अपनी ये गर्दन ।
भोला भाला ...................
जब भी आता था गांव में कोई ट्रक हमारे ।
वहीँ इखट्ठे हो जाते सारे के सारे ॥
सैलेंसर से ले कलोंची मूछ बनाना ।
हां हां हां हां में रावन हूँ यूं चिल्लाना ॥
ड्राइवर कि नज़र चूकते गोबर लाना ।
ढेले - पत्थर सैलेंसर में फिर भर जाना ॥
होते ही स्टार्ट ट्रक के चल पड़ती थी ।
फट फट करके वो अलबेली गोबर की गन ॥
भोला भाला ..................
लो फिर एक याद उठकर यूं मुझसे बोली ।
कितना लड़ते थे खेलते थे जब गोली ॥
ऊँगली में लिए कंचा, लिए कंचों का निशाना ।
पिल पिल्चापिट पिल पिल्चापिट कहते जाना ॥
गुल्ली-डंडा चोर-सिपाही हाकी क्रिकेट ।
और बहुत से खेल और बस उनकी ही धुन ॥
भोला भाला .....................
कितना क्रेजी था गाँव में बन्दर का आना ।
मन्नू मन्नू कहकर यारो शोर मचाना ॥
घर से चुरा कर चने पोटली में भर लेना ।
होड़ होड़ में बन्दर के हाथों में देना ॥
एक बार बन्दर ने घुड़की जब दिखलायी ।
काँप उठा था बदन, बदन में छायी सिरहन ॥
भोला भाला .....................
बारिश के मौसम में मज़ा बहुत आता था ।
खेतों खालियानों में पानी भर जाता था ॥
हम कागज कि नाव बनाकर तैराते थे ।
मुसाफिरों कि जगह पतंगे बैठाते थे ॥
कीट पतंगो को मुफ़्त में शैर कराना ।
बैठाते थे खास तोर चींटों को चुन चुन ॥
भोला भाला ......................
होली के आते ही शरारत आ जाती थी ।
रंग बिरंगी सी एक मस्ती छा जाती थी ॥
कुंदी में फिर बाँध के धागा ख़ूब बजाते ।
खुलते ही दरवाज़े के फौरन छुप जाते ॥
चेहरों पर फिर ख़ूब लगते थे हम सबके ।
लाल हरे बैगनी बसंती और पीले रंग ॥
भोला भाला .....................
एक याद फिर जरा उचक कर मुझसे बोली ।
एक बार जा रही थी हम बच्चों कि टोली ॥
झूडों से ले तुरई ख़ूब बंदूक बनाईं ।
भारत पकिस्तान बंटे, हुई ख़ूब लडाई ॥
पकड़ पकड़ एक दूजे गुट कि धुनाई करना ।
ख़ूब चलाना रेत धूल और मिट्टी के बम ॥
भोला भाला .....................
पशुओं को नहलाने नदिया पर ले जाना ।
पूँछ पकड़कर साथ साथ फिर खुद भी नहाना ॥
"लाल बहू कौन की " खेला करते थे ।
रह रह सबको पानी में धकेला करते थे ॥
पानी के अन्दर छुप जाना लगा के डुबकी ।
और डराना बच्चों को फिर मगर-मच्छ बन ॥
भोला भाला ......................
नज़र पडी लो घड़ी पर टूटे सारे सपने ।
फिर से हो गया लेट अरे ऑफिस को अपने ॥
एक कशमकश चहरे पर आखों में पानी ।
क्यूँ छीना मेरा प्यारा बचपन, बता जवानी ॥
चढ़ लोहे के घोड़े चल दिया ऑफिस अपने ।
सोच रह था काश कोई लौटा दे वो क्षण ।
भोला भाला .....................

( "बचपन " से कुछ अंश )